चाहे वो घर की सीली र्ज़जर दीवारें हो,
या चर्मराति अधेड़ उम्र की कुर्सी की करराहती पुकारे हो..
मेज पे रखी वो धुल चढ़ी फोटो फ्रेम,
या उसके अंदर से अतीत को पुकारती तस्वीरें..
हर कोने से अक्सर डर जाता हु ..
ख़ौफ़ ही तो है, पर ना जाने क्यूँ ये जाता ही नही ...
टकटकी बान्धे देखती, तिरस्कार् करती, जानी - अंजानी निगाहे.
अपनो के बीच भी खुद को अक्सर अंजान पाता हू,
क्यूँ अपने ही अक्स से अक्सर डर जाता हू...
ख़ौफ़ ही तो है, पर ना जाने क्यूँ ये जाता ही नही ....
बचपन मे वो सौ मीटर की दौड़ मे गिरने का डर ,
क्लास मे फ़र्स्ट् ना आने का डर,
वो टूटते दिल का डर, सपनों से लड़ने का डर ..
लोगों से मिलने का डर, खिलखिलाती भीड़ का डर,
चिलचिलाती धूप का डर, गड़गडाते बादलो से गिरती बुन्दो का डर ,
उस् 'हां' का डर, उस् 'ना' का डर ..
जीते जीते सदियाँ सी बीत गई हो जैसे ..
मौत से कहाँ, अब तो ज़िन्दगी से है डर .
ना जाने कब ये सब भुला जाएगा..
ख़ौफ़ ही तो है, पर ना जाने क्यूँ ये जाता ही नही ...