कैसा उलझा सा है मन,
कैसी राह चला जा रहा है?
समंदर के किनारे पहुँच कर,
लहरों से डरा जा रहा है|
कभी सीधा, कभी उल्टा,
भागता हि जा रहा है|
चढ़ती गिरती लहरों को देख
और उलझता जा रहा है|
खुद हि बनाये थे वो रेत के किले
जिन्हें तोड़ता चला जा रहा है|
दूर, सबसे दूर
बहुत दूर चला जा रहा है|
दिन रात सुबह शाम
जाने क्यूँ सोचे जा रहा है?
पागल सा होके मन मेरा,
अकेला हि चला जा रहा है|
अकेला हि चला जा रहा है|
अकेला हि चला जा रहा है||
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- Anonymous
Comments (2 so far )
NITISHA KASHYAP
i think i know the poet! anyway, a very nice piece to read
March 25th, 2012
Author
Thanks Nitisha! :)
March 26th, 2012