विकास विकास विकास – मिथिला का विकास | हर हमेशा हम चर्चा करते हैं और एक सपना बुनते हैं | तो कहने के लिये बता दें, एक पुलिस की लाठी तक हमने नहीं खाई है विकास के लिये और गोली की तो बात कल्पना से पड़े है | तो कैसे होगा विकास, क्या अपने आप हो जायेगा विकास ! आप ही बता दीजिये न मिथिला का एक भी घर जहाँ से पलायन नहीं होता | घुट घुट कर मरते हैं लोग रोज यहाँ | जी हाँ घुट घुट कर लेकिन लड़ते नहीं, संघर्ष नहीं करते हैं, तो कैसे हो मिथिला का विकास |
तो सुन लीजिये इस जवानी को खपाना पड़ेगा, लड़ना पड़ेगा, मरना पड़ेगा और संघर्ष करना पड़ेगा | लाठी गोली सीना पर खाना पड़ेगा | अब आप ही सोचिये न ! मिथिला के किसी घर में आजादी के 70 साल होने के उपरांत भी विकास के चाह में मातम माना क्या, क्या किसी युवा ने सीना पर गोली खाई, क्या संघर्ष हुआ सत्ता की दोगली निति से, क्या कोई आंदोलन हुआ, जनभावना में उबाल आया, क्या मिथिला का खून खौला, क्या गुस्सा से तन बदन फड़का, क्या दिल दिमाग का चैन छीना, क्या बाजुएँ तन का उठी, क्या हम घर से सत्ता को ललकारने निकले | नहीं न, तो फिर ?
जी हाँ इसी देश में गुजर रोज गोलियां खाते हैं, जाटों के घरों में युवाओं के मौत का मातम मनाया जाता है, जवान बेटे के जनाजे को बूढ़े माँ बाप कंधा देतें हैं तब जा कर विकास में हिस्सा मिलता हैं | मनना पड़ता है घर के चिराग के मौत का मातम, बलिदान मांगती हैं ये विकास की परिकल्पना, जवानी की बलिदान, तब जा कर कुछ होता हैं, बदलाव आता हैं और आज आप देखीये न ! आपके सामने की तो बात है | जाट गुजरों की विपन्ता संपनता में बदल गयी इसी बलिदान के बल पर न ! संपनता भी ऐसी की किसी की आखें चौंधिया जायें | कब झोपडी ने बड़े बड़े अटालिका का रूप ले लिया ये पता भी नहीं चला और हमारी ठंडी पड़ी लहू ने हमारी संपनता को लील लिया |
तो साथी हमें खड़ा होना होगा एक लम्बे संघर्ष के लिये | अपने तक़दीर को बदलने के लिये, अपनी खोई वैभव को लौटने के लिये और ये सब बलिदान माँगता है | हमें देना होगा अपना बलिदान और आज इस बात को अपने दिमाग में बैठाने का का वक्त आ गया हैं | शुरुवात हो चुकी है एक मूक क्रांति कि | हम लड़ेंगे, हम बदलेंगे मिथिला की तक़दीर, हमारी विजय निश्चित है !