तुम कहते हो !
सहसा था यह
न ! बिल्कूल नहीं
यह तो धीमी लौ पर उबलता अदृश्य पानी था
जिसे कभी न कभी तो बाहर आना ही था
और तुम !
तुम कहते हो सहसा था,यह
न ! बिल्कूल नहीं
क्या कभी सहसा उबले पानी में
इतनी गर्मी देखी है तूने !
मैंने तो नहीं
जा पूछ उस भुक्तभोगी से
और
भुक्तभोगी तो तुम भी दिखाते हो अब
तरस तो तुम पे भी आता है
जो खुद के अंदर जन्मे धीमे लौ को भी न महसूस कर सका
और हाथ जला आया
सहसा थोड़े ही था यह
और तुम कहते हो सहसा था यह
अरे अपने अंदर की गर्मी तो
जानवर भी पहचान लेते हैं
और
और तुम हाथ जलाकर कहते हो
सहसा था यह
न बिल्कूल नहीं !!
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- AC PRAKASH