बेफिक्री से जीता रहा मैं उन्मुक्त बहारों में,
बिखर गया आशियाँ मेरा और मैं मदमस्त रहा वीरानों में,
वो क्या था वो क्यों था कैसे बेफिक्र रहा तपती रेगिस्तानों में,
बूँद-बूँद को था सुख चुका शबनम धरा से और मैं लोटता रहा रेत के मैदानों में,
कदम - हर - कदम जिंदगी फिसलती जा रही थी मुठ्ठी से मेरी,
और मैं बेफिक्र सोया जा रहा था उनके ख्यालों में,
मैं खुश होता रहा बस उन्हें देखकर -
मैं झूमता रहा बस उनसे दो चार बातें कर के,
और वो न जाने कब निकल गए कस्बे से मेरी,
मेरी ही मौत की तारीख मुकर्रर कर कर,
टूट के बिखरा पड़ा था अब फर्श पर रेत सा बस मैं,
आज से पहले जीता रहा बेफिक्री से खुद को शहंशा मानकर,
हैसियत बची नहीं अब किसी भिखारी से भी बढ़कर,
खता मेरी थी या थी कहर कुदरत का कोई,
मालूम नहीं चला मुझे कब आके गुजर गई कोई भूकल्प आकर,
बेफिक्री से था आश्रय में घरौंदे में अपने स्नेह के लेप से ख्वाबों की ईंट चुनकर,
बिखरे पड़े हैं आज टुकड़े - टुकड़े में बंटकर हर दीवर उस ख्वाब - ए - महल,
और हम बेफिक्री में सोए रहे अँधे और बहरे बनकर।।।।