Vaibhav's Diary

Vaibhav's Diary

Open diary

man of boundless curiosity and a learner for life

28 years old, Male, New Delhi

Diary Entries (3)

Apr 14th, 2013 01:42 AM

14th April '13
00:28 am
Lucknow

Dear Diary,
And i look Blankly at my computer screen. Unable to comprehend or react, am i just waiting for the time to pass off.
BUT what lies beyond this time, this phase. An unending sea of such time. Motionless and still like the Sea.
I find myself helpless and still, for the first time in my life.

Apr 2nd, 2013 12:03 AM

2 अप्रैल
11:34am
फैजाबाद

कल मै अपने पुराने शहर की पुरानी सब्जी मंडी गया था.
पुराना इसलिए क्यूकी मेरा बचपन बीता था यहाँ. इन्ही गलियों के दरमियाँ हमने चलना सीखा था.
इन्ही सब्जी वालों के बीच हर शाम मैं और पिताजी सब्जी लेने आते थे.
उस दौर कभी गौर नहीं किया, और कुछ ज़रूरत भी महसूस नहीं हुई. आज इत्मिनान से कुछ लम्हे बस देखता ही रहा, लोगों को - चीज़ों को. सब्जीवालों को, खोमचे वालों को, ज़मीन पर बैठे उस निराश से दिखते, कुछ गंजे से हो चुके सब्जी वाले को. जिसने सारे आलू जमीन पर बिखेर रखे थे, इस बात से बेफिक्र की कोई उठा ले जायेगा.
कुछ आगे बढ़ा तो साग वाला, जो हर कुछ लम्हे पानी दाल कर पत्तियों को हरा रखने की कोशिश कर रहा थे. और आगे एक बूढी औरत बस दो या तीन कद्दू रखे अपने खरीदार के इंतज़ार में बैठी थी.
यहाँ मसालों का भी व्यापर हो रहा था . किसी ने दो रुपये देकर कहा सब मसाले दे दो, और बूढ़े काका ने झट से एक अखबार की टुकड़े में मसालों की तमाम किस्में कैद कर दीं.
उस दिहाड़ी मजदूर को कैसी विजय अनुभूति हुई होगी, की उसने आज शाम का कैसा कामयाब कारोबार जमा लिया.
एक कोने में कुछ दूर सही ऎक औरत कुछ मछलियाँ भी बेच रही थी. यहाँ सबसे ज्यादा भीड़ थी, खरीदने वालों से ज्यादा देखने वालों की. मुझे लगा गरीबों ने आँखों से ही स्वाद चखने की अद्भुत कला विकसित कर ली है.
लेकिन मै ये क्या कहने लगा, अरे मै कोई सब्जी मंडी का अवलोकन थोड़े ही कर रहा था. मैने तो बस इतना ही गौर किया की यह सारे चेहरे मेरे बचपन वाले ही थे.
हर ठेला, हर खोमचे वाला, वो मछली वाली की खचिया, उस साग वाले की बोरी. यह सब वही लोग थे जो मेरे बचपन के सहयात्री थे. यह सब बंदोबस्त मेरे उस भूल चुके और छूट चुके बचपन का हिस्सा ही तो थे.
लेकिन एक फर्क आ गया था.
मैंने ज़िन्दगी की दौड़ में अपना शहर, और इस पुरानी सब्जीमंडी के लोगों को बहुत पीछे छोड़ दिया था. कुछ बड़ा और बेहतर हासिल करने की ख्वाहिश में ये सारे चेहरे मुझसे बहुत दूर हो गए थे.
और आज जब गौर किया तो इन चेहरों में बहुत झुर्रियां पड़ गयीं थीं. इनके सपने इनके सोच सब इस सब्जी मंडी से ही जुडी रहीं. यहाँ कोई बदलाव नहीं आया.
लोग भी वही थे, सब्जियां भी वही थी और दाम भी कमोबेश वही थे.
बस मै इस ज़िन्दगी की दौड़ में दौड़ते हुए कहीं इन सब से बहुत पीछे छूट गया था.

Apr 1st, 2013 1:48 PM

1st April '13
1:37pm
Faizabad

Dear Diary,
There couldnt have been a better day to start writing my diary again. i dont remember when was the time i wrote last. Maybe an year or maybe more.
Its not that there haven been things to share. Much has been happening, in life and beyond.Maybe i was too lethargic to write or too tired to respond to what the life was doing with me.
I work in a StartUp. A better word to be used here will be an-almost-failed-startup. i sacrificed my so rewarding job my skyrocketing career, hopes aspirations and dreams. I loved working at CVG, a place which gave me recognition; much more than i deserved. A place where people gave me respect, the one which I had earned and also which I hadn’t.
Maybe people don't like it when you start to love what you are doing. Maybe this is where i erred. This is why i have to suffer.
So i left everything behind, i left everyone behind. I had a life and i had people to share it with. today i have nothing.

And then i joined TEchP. A startup i joined as a Product Manager, moved to mktg manager, and now i am VP- marketing. But dont take this as a growth path. It all is there because of need.






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